दिल्ली-एनसीआर में ‘डॉग बनाम पब्लिक सेफ्टी’ की जंग, आंकड़े और प्रशासन की चुनौती
नोएडा में 2024 में कुत्ता काटने के 1.45 लाख से ज़्यादा मामले दर्ज—यह आंकड़ा किसी भी शहर को चौंकाने के लिए काफी है। राजधानी के दिल, राजीव चौक पर “डॉग फीड, पीपल ब्लीड” जैसे पोस्टर उठाए लोगों का विरोध और दूसरी तरफ पशु अधिकार समूहों का तर्क—यह बहस अब सड़क से कोर्ट तक पहुंच चुकी है। दांव पर सिर्फ सड़कों की सुरक्षा नहीं, बल्कि शहरों के आकस्मिक स्वास्थ्य ढांचे, कचरा प्रबंधन और प्रशासनिक क्षमता की भी परीक्षा है।
पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल तीन साल से इस मुद्दे पर अभियान चला रहे हैं। हाल में उन्होंने फेडरेशन ऑफ नोएडा रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (FONRWA) के अध्यक्ष योगेन्द्र शर्मा और वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात कर नोएडा के लिए तय कदमों पर चर्चा की। फोकस—रिहायशी इलाकों से फीडिंग पॉइंट हटाना, ज्यादा शेल्टर बनाना और आक्रामक कुत्तों को व्यवस्थित ढंग से अलग करना।
गोयल का कहना है कि देश में कुत्तों की संख्या बेकाबू रफ्तार से बढ़ रही है। उन्होंने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए दावा किया कि देश में 12 करोड़ से ज्यादा कुत्ते हैं। सिर्फ नोएडा में 2023 में एक लाख से ऊपर बाइट केस दर्ज हुए और 2024 में यह संख्या 1,45,137 के करीब पहुंच गई। जनवरी से मई 2024 के बीच ही 70,000 केस रिपोर्ट होना ट्रेंड को साफ दिखाता है। उनका तर्क है—सिर्फ नसबंदी और टीकाकरण से काम नहीं चलेगा, फीडिंग जोन रिहायशी इलाकों से बाहर करने होंगे।
दिल्ली के कन्नॉट प्लेस से लेकर नोएडा तक गोयल के विरोध-प्रदर्शन दिखे हैं। पोस्टर, नारे और जन-हस्ताक्षर अभियान के बीच उनकी मांगे साफ हैं—सड़क से कुत्तों को शेल्टर में शिफ्ट किया जाए, बाइट पीड़ितों को मुआवज़ा मिले, और एक अखिल-भारतीय स्तर पर स्थायी समाधान की मुहिम चले। उनका कहना है—“हम पशु प्रेमी हैं, पर इंसानी जान की कीमत पर नहीं।”
आरडब्ल्यूए भी खुलकर सामने आए हैं। गोयल का दावा है कि दिल्ली-एनसीआर के करीब 6,000 आरडब्ल्यूए उनकी मांग का समर्थन कर रहे हैं, भले ही सब सार्वजनिक रूप से मुखर न हों। FONRWA के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने प्रशासन से “आक्रामक कुत्तों की पहचान कर रिहायशी इलाकों से हटाने” की साफ मांग रखी है।
प्रशासन ने कुछ कदम बढ़ाए हैं। नोएडा अथॉरिटी का कहना है कि नसबंदी की क्षमता दोगुनी कर अब प्रतिदिन 1,500 कुत्तों तक पहुंचाई जा रही है, और आक्रामक कुत्तों को सेक्टर-94 शेल्टर में शिफ्ट किया जा रहा है। लेकिन यह भी साफ है कि कागज पर टारगेट सेट कर देना और जमीन पर उसे निभाना अलग बातें हैं—डॉग कैचिंग टीम, वेटेरिनरी स्टाफ, ऑपरेशन थिएटर, पोस्ट-ऑप केयर और डेटा ट्रैकिंग—इन सबकी एक साथ क्षमता चाहिए।
यहीं विवाद तेज हो जाता है। पीपल फॉर एनिमल्स जैसे समूह कहते हैं कि वैज्ञानिक तरीके से देखें तो वैक्सीनेशन और नसबंदी ही टिकाऊ रास्ता है। कुत्ते इलाकाई होते हैं, इसलिए फीडिंग जोन को मनमाने तरीके से हटाना उल्टा आक्रामकता बढ़ा सकता है और पालतू समूहों की जगह नए, अनजान समूह आकर बस जाते हैं। उनका कहना है—“पहले योजना बनाओ, फिर क्रियान्वयन करो—वरना नुकसान दोनों तरफ होगा।”
मामला अब अदालत तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की बेंच ने हाल में दिल्ली, नोएडा और गुरुग्राम की नगरपालिका एजेंसियों को छह हफ्ते में हाई-रिस्क रिहायशी इलाकों से कम-से-कम 5,000 कुत्ते पकड़ने और आठ हफ्ते में समुचित डॉग पाउंड बनाने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने माना कि मौजूदा ‘न्यूटर/रिटर्न’ अप्रोच से सार्वजनिक सुरक्षा पर्याप्त नहीं हुई। सवाल यह भी है—जिम्मेदारी आखिर किसकी है? गोयल पूछते हैं—“हर दिन दो हजार के आसपास बाइट केस सामने आ रहे हैं, तो जवाबदेह कौन—कोर्ट, एनजीओ या सरकार?”
कानूनी ढांचे की बात करें तो एनिमल बर्थ कंट्रोल (ABC) नियमों में नसबंदी-टीकाकरण के बाद मूल स्थान पर रिलीज का प्रावधान लंबे समय से है, ताकि क्षेत्रीय संतुलन बना रहे। दूसरी तरफ, अदालत का हालिया रुख हाई-रिस्क जोन में एहतियाती हटाने और सुरक्षित शेल्टर की तरफ इशारा करता है। यानी, नगर निकायों को दो-सिरे की रणनीति चाहिए—जहां खतरा तात्कालिक है, वहां अस्थायी हटाव और शेल्टर; और जहां संभव हो, वहां नियोजित टीकाकरण-नसबंदी के साथ फीडिंग का नियंत्रित प्रबंधन।
लोक-स्वास्थ्य का पहलू सबसे अहम है। भारत ने 2030 तक डॉग-मीडिएटेड रेबीज़ खत्म करने का लक्ष्य तय किया है। बाइट के बाद समय पर वैक्सीन और इम्यूनोग्लोब्युलिन पहुंचना उतना ही जरूरी है जितना कुत्तों का टीकाकरण। जमीनी हकीकत यह है कि कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में अभी भी स्टॉक-आउट होते हैं, रेफरल की व्यवस्था ढीली रहती है और पीड़ितों को निजी अस्पतालों का खर्च उठाना पड़ता है। आरडब्ल्यूए और निकायों का साझा ‘रेबीज़-रेडी’ प्रोग्राम—24x7 हेल्पलाइन, पीईपी वैक्सीन की उपलब्धता का लाइव डैशबोर्ड और स्कूलों में बाइट-प्रिवेंशन ड्रिल—सीधा असर डाल सकता है।
गोयल की मांगों को व्यवस्थित तरीके से देखें तो वे तीन परतों में बंटी हैं—तुरंत, मध्यकालिक और दीर्घकालिक। तुरंत—हाई-रिस्क इलाकों से हटाव, पीड़ितों को मुआवज़ा और आक्रामक कुत्तों की पहचान। मध्यकालिक—शेल्टर की क्षमता बढ़ाना, फीडिंग जोन रिहायशी इलाकों से दूर करना और ठोस कचरा प्रबंधन। दीर्घकालिक—देशव्यापी स्थायी समाधान, जिसमें एकरूप नीति, बजट और जवाबदेही तय हो।
- तुरंत कदम: हाई-रिस्क सोसाइटियों/स्कूलों/अस्पतालों की मैपिंग, समर्पित कैचिंग टीमें, 24 घंटे के भीतर मेडिकल मदद और ऑन-द-स्पॉट एफआईआर/क्लेम सहायता।
- मध्यकालिक कदम: सेक्टर-वार शेल्टर कैपेसिटी, फीडिंग पॉइंट्स का चिन्हांकन और साइनज, बायो-मेडिकल वेस्ट और किचन वेस्ट की सख्त निगरानी।
- दीर्घकालिक कदम: माइक्रोचिपिंग/टैगिंग, डिजिटल डेटाबेस, मास वैक्सीनेशन-स्टरलाइजेशन कैंप और सार्वजनिक रिपोर्टिंग डैशबोर्ड।
फीडिंग जोन पर टकराव को कम करने के व्यावहारिक तरीके भी हैं। शहरों ने जहां-जहां कामयाबी पाई, वहां तीन चीजें कॉमन दिखीं—पहला, फीडिंग के तय पॉइंट्स जो रिहायशी दरवाजों और बच्चों के खेलने की जगहों से दूर हों; दूसरा, समय और जिम्मेदार फीडर की पहचान; तीसरा, साफ-सफाई और कचरा उठान की सख्त दिनचर्या। जब कचरा बिखरा रहता है, कुत्तों के समूह तेजी से बढ़ते हैं। यानी शहरी स्वच्छता खुद एक सुरक्षा नीति है।
नोएडा अथॉरिटी का 1,500 कुत्ते प्रतिदिन नसबंदी का लक्ष्य अगर जमीन पर टिकना है, तो पशु चिकित्सकों की शिफ्ट ड्यूटी, ऑपरेशन के बाद रिकवरी बेड, एंटी-रेबीज़ का कोल्ड-चेन, और ट्रांज़िट के लिए ह्यूमन-स्केल्ड वैन जरूरी होंगे। कॉन्ट्रैक्टर-आधारित मॉडल में अक्सर गुणवत्ता गिरती है—सर्जिकल सेफ्टी, एनस्थीसिया और पोस्ट-ऑप मॉनिटरिंग पर स्वतंत्र ऑडिट की जरूरत है।
मुआवज़े पर भी नीति साफ होनी चाहिए। कई राज्यों में बाइट के गंभीर मामलों के लिए क्षतिपूर्ति है, पर रकम, प्रक्रिया और समय-सीमा अस्पष्ट रहते हैं। एक मानक ‘कुत्ता काटने पीड़ित सहायता योजना’—जिसमें मेडिकल बिल, काम का नुकसान, और स्थायी विकलांगता के मामले में अतिरिक्त सहायता—लोगों का भरोसा लौटा सकती है। आरडब्ल्यूए स्तर पर ‘इंसीडेंट रिस्पांस टीम’ पीड़ित को अस्पताल, पुलिस और बीमा में तुरंत जोड़ दे—यही मूलभूत नागरिक सेवा है।
तकनीक भी मदद कर सकती है। वार्ड-वार बाइट केस, स्टरलाइजेशन काउंट, वैक्सीनेशन कवरेज और शिकायत निपटान की समय-सीमा अगर सार्वजनिक डैशबोर्ड पर हो, तो शोर की जगह डेटा बोलेगा। मोबाइल ऐप से ‘हॉटस्पॉट मैपिंग’—जहां स्कूल, एंगनवाड़ी, बूढ़ों के पार्क और बस-स्टॉप हैं—उसी अनुपात में प्राथमिकता तय हो।
पशु अधिकार समूहों का डर भी वाजिब है—बेतरतीब हटाव से नए, अनजान और कभी-कभी ज्यादा आक्रामक समूह उस जगह आकर बस जाते हैं। इसलिए ‘हटाव’ को ‘रणनीति’ की तरह देखें—जो आपके हक में तभी काम करेगा जब शेल्टर सही होंगे, वैक्सीन/नसबंदी लगातार चलेगी और फीडिंग नियंत्रित होगी। अन्यथा यह सिर्फ “एक जगह से दूसरी जगह धकेलने” जैसा होकर रह जाएगा।
आंकड़े बता रहे हैं कि सार्वजनिक धैर्य कम हो रहा है, वहीं मैदान में काम करने वाली टीमें सीमित संसाधनों से जूझ रही हैं। राजनीतिक तापमान भी बढ़ता दिख रहा है—स्थानीय निकायों से लेकर राज्य सरकारों तक—क्योंकि यह मुद्दा रोजमर्रा की सुरक्षा से सीधा जुड़ा है। केंद्रीकृत फंडिंग, स्पष्ट जिम्मेदारियां और कोर्ट-निर्देशों की समयबद्ध पालना—यही तीन बातें अगले कुछ महीनों का असली इम्तहान तय करेंगी।
विजय गोयल की लाइन एक तरफ है—शेल्टर-फर्स्ट और हाई-रिस्क जोन से तात्कालिक हटाव। दूसरी तरफ पशु हित समूह—वैक्सीनेशन-स्टरलाइजेशन और जिम्मेदार फीडिंग। बीच का रास्ता ही व्यवहार्य लगता है: हाई-रिस्क पॉकेट में लक्षित हटाव + सुरक्षित शेल्टर, और साथ ही शहर-व्यापी वैक्सीनेशन-नसबंदी की तेज रफ्तार। इसमें रेबीज़-रेस्पॉन्स सिस्टम और लोगों को सही जानकारी देना जोड़ दें—तो तस्वीर बदल सकती है।
अदालत की डेडलाइन—छह हफ्ते में 5,000 पकड़, आठ हफ्ते में डॉग पाउंड—घड़ी की सुइयों से बंधी है। क्या नगर निकाय टीम, शेल्टर और मेडिकोज की संयुक्त कमान बना पाएंगे? क्या आरडब्ल्यूए के साथ एक्शन-प्रोटोकॉल कमरे से निकलकर मैदान तक पहुंचेगा? और क्या जो भी मॉडल बनेगा, वह संवेदनशील होगा—ताकि इंसानी सुरक्षा और पशु कल्याण, दोनों संतुलित रहें?
दिल्ली-एनसीआर को अभी एक ईमानदार, डेटा-ड्रिवन और मैदान-धनी योजना चाहिए—जहां आवारा कुत्ते सिर्फ विवाद का विषय न रहें, बल्कि एक स्पष्ट और मानवीय नीति के तहत संभाले जाएं। लोगों की सुरक्षा, रेबीज़-फ्री भारत का लक्ष्य और पशु कल्याण—तीनों साथ-साथ चल सकते हैं, बशर्ते फैसले सख्त हों और अमल ईमानदार।
क्या बदलेगा जमीन पर: साफ रोडमैप और ‘कौन क्या करेगा’
नगर निकाय: हाई-रिस्क जोन की हफ्ते-दर-हफ्ते मैपिंग; 24x7 कैचिंग-टीम; शेल्टर में SOP—इंटेक, क्वारंटीन, वैक्सीनेशन, स्टरलाइजेशन और पुनर्वास; डैशबोर्ड पर दैनिक रिपोर्टिंग।
स्वास्थ्य विभाग: पीईपी वैक्सीन और इम्यूनोग्लोब्युलिन का स्टॉक; इमरजेंसी रूम में बाइट-प्रोटोकॉल; स्कूल/ओल्ड-एज हाउस में प्रशिक्षण; पीड़ित सहायता डेस्क।
आरडब्ल्यूए/सोसायटी: फीडिंग पॉइंट तय करना; कचरा-प्रबंधन की सख्ती; बच्चों और बुजुर्गों के लिए ‘सेफ रूट’; बाइट-इंसीडेंट की तत्काल रिपोर्टिंग और सीसीटीवी लॉग।
एनजीओ/वॉलंटियर: जिम्मेदार फीडिंग; मेडिकल कैम्प; जागरूकता; शेल्टर मैनेजमेंट सपोर्ट और मॉनिटरिंग।
कानून प्रवर्तन: हाई-रिस्क और स्कूल-ज़ोन के पास धारा-वार पेनल्टी फीडिंग/कचरा उल्लंघन पर; हिंसा/क्रूरता रोकने की सख्त निगरानी; विवाद में त्वरित मध्यस्थता।
यह लड़ाई ‘या तो-या’ वाली नहीं है। दिल्ली-एनसीआर जैसे घने शहरी इलाकों में समस्या बहुस्तरीय है, समाधान भी बहुस्तरीय होगा। अगर डेडलाइन, डेटा और डिलीवरी एक लाइन में आ गए—तो शहर सुरक्षित भी होगा और मानवीय भी।